मानवता कितनी जकड़ गई
जो दिल्ली इतनी दहक गई
शब्द कौन थे वे ?
जिसने प्रज्ञा को मूढ़ बना दिया ?
आज इंसान इंसानियत की
नीव में चिंगारी लगाए बैठा है
न जाने कौन से स्वार्थ में
है झुलस गया,
संतुलन, संवेदना खो रहा
सब चिंतन, सिद्धांत
जलाकर भस्म कर दिया |
है चेतता जब कोई
तेज तूफाँ गुजरता है अपने सिर से
तब चिल्ला-चिल्लाकर
आजीवन आमरण अनशन पर
बैठ नया संविधान मांग करता है |
दल कोई भी हो
आड़ में भावी सत्ता हथियाने को
बली चढ़ाती हुजूम का
इंधन बना चूल्हे में झोंकता है |
है क्या समर्थ वह
उस जख्म को समझने को
जिनके घरों में सहसा विपत्ति की छाया आई है
अंधियारा छाया है
वात्सल्य का छत टूट गया है
क्या वह चीख चीत्कार सुन पायेगा ?
इस मंजर का हिसाब देगा कौन ?
कौन सा लोक बनाएगा
जो इस जहाँ के शब्दकोश में नहीं |
श्रद्धा से-
अविनाश कुमार राव